शादी में रतजगा करना कैसा


सवाल मुसलमानों में बअ्ज़ इलाक़ों में यह रिवाज पाया जाता है, कि शादी से हफ़्ता 10 दिन पहले से मोहल्ले की औरतों को जमा करके गीत गाने का इंतज़ाम किया जाता है, बअ्ज़ गीतों में फ़हश (गंदे) कलिमात और जुमले भी होते हैं, शादी की रात, रात भर जागती हैं, जिसको रतजगा कहते हैं फिर इजतिमाई तौर पर गीत गाते हुए यह औरतें मस्जिद जाती हैं, और ताक़ भर्ती हैं, यानी गुलगुला और मीठी रोटी पका कर मस्जिद में ताक़ पर रखती हैं, जिसे नमाज़ी हज़रात खाते हैं, शादी के बाद दूल्हा के सेहरा मकना को दरिया में बहाने जाती हैं, इसमें भी औरतें इज्तिमाई तौर पर गीत गाते हुए जाती हैं, तो क्या यह सब चीज़ें हैं जाइज़ व दुरुस्त हैं या बिदअत व मुनकिरात पर मुश्तमिल होने की वजह से नाजाइज़ व हराम हैं

अल जवाब यह सब चीज़ें बिदत व मुनकिरात पर मुश्तमिल होने की वजह से नाजाइज़ व हराम हैं, औरतों का इस तरह गाना के उसकी आवाज़ ग़ैर महरम अजनबी तक पहुंचे हराम और गुनाह है, हरगिज़ जाइज़ नहीं के उनका गाना आवाज़ के साथ होता है, जो कि फ़ित्ना का सबब है

रद्दुल मोहतार में है

رفع صوتهن حرام

📗 जिल्द 2, सफ़ह 48)

इसी फित्ना के सबब औरतों को अज़ान भी कहना जाइज़ नहीं

बहरुर्राइक़ में है

و اما اذان المراة فلا نها منهية عن رفع صوتها لانه يودى الى الفتنة

📗 जिल्द 1, सफ़ह 458)

और गाने में उमूमन विसाल व हिज्र के अशआर और फ़हश (गंदे) कलिमात होते हैं, ऐसा गाना बुरा ही है कि वह ज़िना का मंतर है

जैसा के हदीसे पाक में है


الغناء رقية الزناء

📘 मिर्क़ात शरहे मिश्कात जिल्द 2 सफ़ह 249)

और हुज़ूर आलाहज़रत अलैहिर्रहमह् फ़रमाते हैं

इसी तरह यह गाने बाजे के उन विलाद में मामूल व राइज हैं, बिला शुबा ममनू व नाजाइज़ हैं, खुसूसन वह नापाक मलऊन रसम के बबत ख़िंरा बे तमीज़ अहमक़ जाहिलों ने शयातीन हुनूद मलाईन बे बहबूद से सीखी यानी फ़हश गालियों के गीत गवाना और मजलिस के हाज़िरीन व हाज़िरात को लच्छेदार सुनाना सम्धियाना की अफ़ीफ़ पाक दामन औरतों को अल्फ़ाज़े ज़िना से ताबीर करना कराना खुसूसन इस मलऊन बे हया रसम का मजमअ् ज़ना (औरतों के मजमअ्) में होना उनका इस नापाक फ़ाहिशा हरकत पर हंसना क़हक़हे उड़ाना अपनी कुंवारी लड़कियों को यह सब कुछ सुना कर बदलिहाज़ बेहया बेग़ैरत खबीस बे हमयत मर्दों का इस शहद पन को जाइज़ रखना कभी बरा ए नाम लोगों के दिखावे को झूठ सच एक आध बार झिड़क देना मगर बंदोबस्त क़तई ना करना यह शनीअ् गंदी मरदूद रसम है, जिस पर सदहा लानतें अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल की उतरती हैं, उसके करने वाले इस पर राज़ी होने वाले अपने यहां उसका काफी इन्सदादना करने वाले सब फ़ासिक़ फ़ाजिर मर्तकिबे कबाइर मुस्तहिक़े ग़ज़ब व जब्बार व अज़ाबे नार हैं

📚 अर्रज़वियह जिल्द 9 सफ़ह 77, निस्फ़ अव्वल, कदीम यानी पुराना ऐडीशन)

और फ़कीहे आज़म हुज़ूर सदरुश्शरिअह बदरुत्तरीक़ह अल्लामा अमजद अली आज़मी अलैहिर्रहमह फ़रमाते हैं

अक्सर जाहिलों में रिवाज है, के मोहल्ला या रिश्ता की औरतें जमा होती हैं, और गाती बजाती हैं, यह हराम है, के अव्वलन ढोल बजाना ही हराम फिर औरतों का गाना मजीद बरां औरत की आवाज़ ना मेहरमो को पहुंचना और वह भी गाने की वह भी इश्क़ व हिज्र व विसाल के अशआर या गीत जो औरतें अपने घरों में चिल्ला कर बात करना पसंद नहीं करतीं घर से बाहर आवाज़ जाने को मअ्यूब (ऐब) जानती हैं, ऐसे मौक़ों पर वह भी शरीक हो जाती हैं, गोया उनके नज़दीक गाना कोई ऐब ही नहीं कितनी ही दूर तक आवाज़ जाए कोई हर्ज नहीं नीज़ ऐसे गाने में जवान जवान कुंवारी लड़कियां भी होती हैं, उनका ऐसे अशआर पड़ना या सुनना किसी हद तक उनके दबे हुए जोश को उभारेगा और कैसे-कैसे वल वले पैदा करेगा, और अख़्लाक़ व आदात पर उसका कहां तक असर पड़ेगा यह बातें ऐसी नहीं जिनके समझाने की ज़रूरत हो सबूत पेश करने की हाजत हो, नीज़ इसी ज़िमन में रतजगा भी है कि रात भर गाती हैं, और गुलगुले पकते हैं, सुबह को मस्जिद में ताक़ भरने जाती हैं यह बहुत सी ख़ुराफ़ात पर मुश्तमिल है, नियाज़ घर में भी हो सकती है, और अगर मस्जिद ही में हो तो मर्द ले जा सकते हैं औरतों की क्या ज़रूरत फिर अगर इस रसम की अदा के लिए औरत ही होना ज़रूर हो तो इस जमघटे कि क्या हाजत फिर जवानों और कुंवारियों की इसमें शिरकत और नामेहरम के सामने जाने की जुराअ्त किस क़दर हिमाक़त है, फिर बअ्ज़ जगह यह भी देखा गया कि इस रसम के अदा करने के लिए चलती हैं तो वही गाना बजाना साथ होता है इसी शान से मस्जिद तक पहुंचती हैं

📚 बहारे शरीअअत हिस्सा 7, सफ़ह 94, पुराना ऐडीशन)

📔 औरतों के जदीद और अहम मसाइल सफ़ह 150--151--152--153)

कत्बा अल अब्द खाकसार नाचीज़ मोहम्मद शफीक़ रजा़ रज़वी ख़तीब व इमाम सुन्नी मस्जिद हज़रत मन्सूर शाह रहमतुल्लाह अलैहि बस स्टैंड किशनपुर जि़ला फतेहपुर उत्तर प्रदेश

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