इमाम के लिए मुक़र्रिर होना कितना ज़रूरी है ?
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आजकल काफी जगह की अवाम (आम लोग) मस्जिद में जब किसी को इमामत के लिए रखते हैं तो उससे तक़रीर कराते हैं, अगर वह धूम-धड़ाके से खूब कूद-फांद कर हाथ पांव फेंक कर जोशीले अंदाज़ मै जज़्बाती तक़रीर कर दे तो बड़े खुश होते हैं, और उसको इमामत के लिए पसंद करते हैं, यहां तक के बाअज़ जगह तो खुशहुल-हानी और अच्छी आवाज़ से नाते और नज्में पढ़ दे तो उसको बहुत बढ़िया इमाम ख़्याल करते हैं, इस बात की तरफ़ तवज्जो नहीं देते कि उसका कुरान शरीफ ग़लत है या सही ?
इसको मसाइल-ए-दुनिया से बा-क़द्र-ए-ज़रूरत वाक़फ़ियत है या नहीं ? और इस का किरदार और अमल मनसबे इमामत के लिए मुनासिब है या नहीं ? अगरचे तक़रीर और बयान और ख़िताबत अगर उसूलों शराइत के साथ हों तो उस से दीन को तक़वियत (ताक़त) हासिल होती है और हुई है। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि दीनदारी तक़वा शिआरी और ख़ौफ़-ए-ख़ुदा उमूमन कम सुख़न (कम बोलने वालों) और संजीदा मिज़ाज लोगों में ज़्यादा मिलता है। ज़ुबान ज़ोर और मुंह के मज़बूत लोग सब काम मुंह और ज़ुबान से ही चलाना चाहते हैं और इस्लाम गुफ़्तार से ज़्यादा किरदार से फैला है, और आजकल के ज़्यादातर मौलवियों और इमामों के लिए बजाए तक़रीरो खिताबत के' ज़िम्मेदार ओलामाए अहले सुन्नत की आम फ़हम (आसान) अंदाज़ मै लिखी हुई किताबें पढ़कर हम को सुनाना ज़्यादा मुनासिब और बेहतर है
ख़ुलासा यह कि आजकल हर जगह लोग जो इमाम के लिए मुक़र्रिर (तेज़ तर्रार तक़रीर करने वाला) होना ज़रूरी ख़्याल करते हैं यह लोग ग़लती पर हैं
📚 (ग़लत फेहमियां और उनकी इस्लाह, सफ़्हा न. 42)
✍🏻 अज़ क़लम 🌹 खाकसार ना चीज़ मोहम्मद शफीक़ रज़ा रिज़वी खतीब व इमाम (सुन्नी मस्जिद हज़रत मनसूर शाह रहमतुल्लाह अलैह बस स्टॉप किशनपुर अल हिंद)
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