क्या औरतों को तरावीह पढ़ना सही है ? अकेले या जमाअत से?

 


✿➺ सुवाल:


क्या औरतों को तरावीह पढ़ना सही है ? अकेले या जमाअत से?


❀➺ जवाब


तरावीह सुन्नते मुअक्कदा है, और ये मर्द औरत दोनो के लिए है, इसका तारित (तर्क करने वाला) गुनहगार


जैसा की बहारे शरीअत जिल्द:1, सफा:688, पर है


तरावीह मर्द औरत सबके लिए बिला इज़मा सुन्नते मुअक्कदा है इसका तर्क जाइज़ नही



फतावा रज़विया जिल्द:7, सफा:462, पर है


अगर कोई शख्स मर्द या औरत बिला उजर ए शरई (तरावीह) तर्क करे, मुब्तला ए कराहत वा असात हो

अब रहा ये की जमाअते तरावीह क्या है ? क्या तरावीह जमाअत से ही पढ़ना ज़रूरी है, तो तरावीह की जमाअत सुन्नत ए किफाया है, अगर महल्ले से किसी ने जमाअत कायम ना की तो सब गुनहगार, और अगर कुछ लोगो ने जमाअत से पढ़ ली और बाकी कुछ ने घर मे पढ़ ली तो कुछ गुनाह नही


दूरे मुख़्तार जिल्द:1, सफा:98 पर है


इनमे असह (ज़्यादा सही) कौल के मुताबिक़ सुन्नते किफाया है, अगर तमाम अहले मस्जिद ने इसे तर्क किया, तो गुनहगार होंगे, और कुछ ने (तरावीह की जमाअत) तर्क की तो गुनहगार नहीं)


फतावा रज़विया जिल्द:7, सफा:462, पर है


अगर अहले महल्ला अपनी अपनी मसजिद में, इकामत जमाअत करें, और उनमे बाज़ घरो मे तरावीह तन्हा या जमाअत से पढ़े तो हर्ज़ नहीं" अब रहा ये घर मे कैसे जमाअत बने अगर कोई हाफ़िज़ ना हो तो ? इसका जवाब ये है की तरावीह का 20 रकाअत पढ़ना ज़रूरी है, फिर चाहै आखरी पारे की छोटी छोटी आयतो से 20 रकाअत पूरी कर ली जाए तब भी गुनाह नहीं, वरना तो औरतो मे कोन सी हाफ़िज़ा होती है ? तो वो कैसे पढ़ती हैं, ज़ाहिर है जो सूरत याद होती हैं उन्ही से पढ़ती है, तो घर मे ऐसा शख्स, जो काबिले इमामत हो, तो जमाअत कायम की जा सकती है ठीक वैसे है, अगर शोहर इमामत के काबिल है, तो बीवी उसके साथ जमाअत बना सकती है, और 20 रकाअत तरावीह पढ़ सकते हैं, और अगर बिल फ़र्ज़ किसी दिन की तरावीह रह जाए तो उसकी क़ज़ा नही, और ना आगे पढ़ना बंद करे, शैतान ने लोगो के दिलो मे ये वस्वसा डाला हुआ है की अगर तरावीह एक दिन भी छूट जाए तो पहले उसकी क़ज़ा करनी पढ़ती है, और ये भी की तरावीह छूटे तो अब आगे नही पढ़ सकते, क्यूँ फिर छूट जाएंगी, ये दोनो बाते ग़लत है


 फतावा रज़विया जिल्द:7, सफा:463, पर है


तरावीह अगर नागा हो तो उनकी क़ज़ा नहीं


अब रहा औरतो की जमाअत का मसअला तो औरत को जमाअत से नमाज़ पढ़ना गुनाह है, चाहै कोई भी नमाज़ हो, एक सूरत जाइज़ होने की ये हो सकती है की, अगर मर्द इमाम है और औरत उसकी मेहरम या बीवी है तो बा-जमाअत नमाज़ पढ़ सकते हैं


जैसा फतावा रज़विया जिल्द:6, सफा:492, पर है


पर इरशाद फरमाते हैं "और अगर जमाअत मे जितनी औरतें उसकी मेहरम या बीवी या हद्दे शहवत तक ना पहुँची लड़कियों के सिवा (कोई) नही तो (जमाअत से नमाज़ पढ़ना) बिला कराहत जाइज़ है, और ना-मेहरम (शहवत को पहुची हुई) हो तो मकरूह बहरहाल


खुलासा ए कलाम ये है की


औरत को भी तरावीह पढ़ना ज़रूरी हैं ना पड़ेगी तो गुनहगार होगी, औरत को जमाअत से तरावीह जाइज़ नही, तन्हा पढ़े, मगर इमाम अगर उसका शोहर बने या कोई मेहरम (बाप, बेटा, भाई) तो औरत को उनके पीछे जमाअत से तरावीह बल्कि फ़र्ज़ नमाज़ भी अदा कर सकती है


📚ह़वाला पर्दादारी, सफा नं.39

     

✒️मौलाना अब्दुल लतीफ न‌ईमी रज़वी क़ादरी बड़ा रहुवा बायसी पूर्णियाँ बिहार

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