मैय्यत को गुस्ल देते वक़्त कल्मा शरीफ़ पढ़ना कैसा ?



मैय्यत को ग़ुस्ल देते वक़्त कलिमा शरीफ़ पढ़ना कैसा है? 

🕯️मसला: कई लोगों से सुना जाता है कि ग़ुस्ल करते या ग़ुस्लखाने में नात शरीफ़ या कलिमा शरीफ़ वग़ैरह पढ़ना मना है।

अब सवाल यह है कि जब मय्यत को ग़ुस्ल दिया जाता है तो क्या उस वक़्त कलिमा शरीफ़ पढ़ना सही है या ग़लत?

हमारे इलाक़े में तो लोग ग़ुस्ल देते वक़्त कलिमा का विर्द करते हैं — क्या यह जायज़ है?

📜 अल-जवाब: अगर ग़ुस्ल देने वाला जनबी (नापाक) या बेरहना नहीं है

और ग़ुस्लखाना नापाक नहीं है तो वह दिल में कलिमा शरीफ़ पढ़ सकता है मगर ज़ोर से पढ़ना जायज़ नहीं ❌

📖 वजह यह है कि ग़ुस्लखाना नजासत (गंदगी) की जगह होती है, और ज़ोर से पढ़ने पर कुरआनी हुरूफ की आवाज़ नजासत की जगह से गुजरती है, जो किरात (नापसंदी) का कारण है

💧अगर बहते हुए पानी (जैसे दरिया) में ग़ुस्ल किया जाए तो वहाँ कलिमा ज़ोर से पढ़ना मकरूह नहीं क्योंकि अब किरात की वजह बाक़ी नहीं रहती

⚰️मय्यत के क़रीब ज़ोर से कुरआन या कलिमा पढ़ना मना है, क्योंकि इंसान मरने के बाद शरीअत के हुक्म में नज्स (नापाक) हो जाता है

इसलिए जब तक उसे पूरा ढका न जाए या ग़ुस्ल न दिया जाए उसके पास ज़ोर से कलिमा पढ़ना मना है हाँ दिल में पढ़ना जायज़ है ✅

📚 वल्लाहो आलमु बिस्सवाब 


✍️ क़तबा: नदीम इब्न अलीम अल-मसबूर अल-ऐनी मुंबई, महाराष्ट्र (भारत)

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