💵 मालदार होने के लिए मुरीद होना ?
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आजकल ज़्यादातर लोग इसलिए मुरीद होते हैं कि हम मालदार हो जाएंगे या दुनियावि नुक़सानात से महफूज़ रहेंगे, कितने लोग यह कहते सुने जाते हैं कि हम फलां पीर साहब से मुरीद होकर खुशहाल और मालदार हो गए। अफ़सोस का मक़ाम है क्योंकि जो पीरी मुरीदी कभी रुश्दो हिदायत, ईमान की हिफ़ाज़त और दुख़ूले जन्नत, हुसूले शफ़ाअत का ज़रिया ख़्याल की जाती थी आज वह हुसूल'ए दौलत, और इमारत या सिर्फ नक्शो ताअवीज़, पढ़ना और फूंकना बनकर रह गई, अब शायद ही कोई खुशनसीब होगा जो अहले इल्म'ओ फ़ज़्ल ओलमा, सुलहा या मज़ारते मुक़द्दसा पर इस नियत से हाज़िरी देता हो कि उनसे गुनाहों की मग़फिरत और ख़ात्मा अलल ईमान की दुआ कराएंगे
इस्लाम में दुनिया की जिंदगी को महज़ एक खेल तमाशा कहा गया और आखिरत को बाक़ी रहने वाला। लेकिन जिसका पता नहीं कब साथ छोड़ जाए उसको संभालने और बनाने में लग गए, और जहां सब दिन रहना है उसको भुला बैठे हदीसे पाक में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो तआला अलेही वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया जब तुम किसी बंदे को देखो कि अल्लाह उसको गुनाहों के बावजूद नया (अच्छे से अच्छा) दे रहा है जो कभी वह बंदा चाहता है, तो यह ढील है यानी अगर कोई बंदा गुनाह करता है मगर हक़ तआला की तरफ़ से बजाए पकड़ के नेअमतें मिल रही हैं, तो यह नेअमतें नही बल्कि अज़ाब है। रात दिन दौलत कमाने में लगे रहने वाले अब मस्जिदों, खानक़ाहों में भी कभी आते हैं तो महज़ दोलते दुनिया और ऐश'ओ आराम की फिकर लेकर किस क़द्र महरूमी है ख़ुदा'ए तआला आख़िरत की फ़िक्र करने की तौफ़ीक़ मरहमत फ़रमाए आमीन
📚 (ग़लत फहमियां और उनकी इस्लाह, सफ़्हा न. 92)
✍🏻 अज़ क़लम 🌹 खाकसार ना चीज़ मोहम्मद शफीक़ रज़ा रिज़वी खतीब व इमाम (सुन्नी मस्जिद हज़रत मनसूर शाह रहमतुल्लाह अलैह बस स्टॉप किशनपुर अल हिंद)